सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

नीँद

अब आंखे  अक्सर उसे बंद करने से इंकार कर देती है,
पलकों के दरवाज़े से बाहर ,
दहलीज पर पड़े सोफे पर बैठना पड़ता है उसे।
बहुत देर तक इंतजार करना पड़ता है,
बचपन में बहुत जल्दी से आ जाती थी,
झट से नन्ही पलकों समा जाती थी।
अब भटकती  रहती है बिस्तर पर ,
न जाने कितनी करवाते बदलती है,
तकिये को सीने से लगाये हुए।
इक्छावों का पंछी उड़ता है स्वप्नों के अनंत आकाश में,
फिर सहसा गिर पड़ता है पखे से काटकर,
लहूलुहान बिस्तर पर।
अब वो मेरा दामन  पकड़कर रोती है ,
पलकों का दरवाज़ा बंद होता है और मुझे नींद आ जाती है। 

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